Tuesday 18 August, 2009

युवा सांसदः बुरा ना मानो, प्रायोजित कार्यक्रम से लगते हैं।

आज जब भी भारतीय लोकतंत्र में युवा चेहरों की बात होती है तो संसद में युवाओं की भागीदारी की बात सिरे से ही बेमानी लगती है। वो इसलिए क्योंकि नजर दौड़ाने पर चुनाव में जीत कर आया एक भी युवा सांसद ऐसा नहीं दिखता जो वाकई में जनता का असल जनप्रतिनिधि लगे, मुझे ऐसा लगता है कि संसद में युवा चेहरे के नाम पर पेश किए गए ये चेहरे वास्तविक नहीं, बल्कि प्रायोजित हैं। क्योंकि उत्तराधिकार के नाम पर मिले जनता के भावनात्मक श्रद्धांजलि से इतर इनका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है। वो इसलिए कि संसद पहुंचे अधिकतर युवा बुर्जुवा नेताओं की पारिवारिक फसल से अधिक कुछ नहीं हैं। क्‍योंकि इन युवा फसलों को बुर्जुवा सांसदों द्वारा पारिवारिक धंधे को विस्‍तार देने के लिए साजिशन संसद में घुसेडा गया है। संसद में इन्‍हें घुसेडने के लिए कभी जनता जाति विशेष के नाम पर बरगलाई गई है व कभी नेता विशेष के फूलों के लिए इमोशनल फूल बनाई जाती रही है। अब आप ही बताइए इन श्रेणी के युवाशक्‍ति संसद भवन में क्‍या खाक आंदोलन छेडेगे, जिन्‍हें सामाजिक सरोकार नहीं राजनीतिक पैतरेबाजी की डिग्री पहले दी जाती है।
उल्‍लेखनीय है ऐसा चुनाव इतिहास में क्रमवार चलता आया है लेकिन इन फसलों को खाद पानी से चमकाने के सिवाय प्रतिफल की अपेक्षा ना ही इमोशनल जनता करती है ना ही फसलों के मालिक करते है। युवाओं का यह फौज जनता के कितने काम आती है यह बताने की जरूरत मैं यहां नहीं समझता, लेकिन एक बात यहां खटकती है वो यह कि युवा नेतत्‍व को संसद में लाने का दम भरने वाले नेता किसी ऐसे युवा को मौका क्‍यों नहीं देते जो सचमुच युवाओं की पैरोकारी करते हुए राजनीति में आना चाहता है व अपने युवा जज्‍बे का इस्‍तेमाल जनता के हित के लिए करना चाहता हैं। हां, ऐसे युवाओं को पार्टियां जरूरी मौका देती है जो वर्षों पहले या तो गुमराह हो चुकी है या गुमराह होने के मोड पर खडी होती है। क्‍योंकि ऐसे युवा एक तरफ जहां पार्टी की लठृमार राजनीति में काम आते है तो दूसरी तरफ धक्‍कामुक्‍की व तोडफोड के लिए ऐसे बाहुबली नेताओं की पार्टी में जरूरत भी तो होती है। अब सब काम जनता की भलाई के लिए थोडे ही किया जाएगा, कुछ पार्टी की मजबूरी भी तो होती है। फिर उनके लाल सिर फुडवाने के लिए थोडे ही राजनीति में आएं हैं। मुझे तो कोई शिकायत नहीं है, बस ठसक इस बात की रहती है कि युवाओं के वजूद को इसमें बेवजह ही मारा जा रहा है।
क्‍योंकि जहां तक युवाओं की परिभाषा मुझे मालूम है, मेरी समझ में जिस युवा का खून देशहित व जनहित मसले पर आवाज उठाने से पहले और बाद तक खौलता रहे वही असल युवाशक्‍ति है। क्‍योंकि वो युवाशक्‍ति युवा हो ही नहीं सकता जिसका खून राजनीतिक फायदे व नुकसान को समझने के बाद उबाल मारे। मेरी समझ में युवाशक्‍ति का सच्‍ची परिभाषा यही होनी चाहिए थी। लेकिन अफसोस इस बात का है कि संसद में पहुंचे अधिकांश युवा इस श्रेणी के युवा हैं ही नहीं, बल्‍कि (मुझे कहने में कोई संकोच नही) मोडीफाइड युवा है। क्‍योंकि अभी पिछले दिनों संसद भवन से आई एक रिपोर्ट भी यही कुछ कह रहीं है। संसद से आई रिपोर्ट में कहा गया हे कि चुनाव में जीत कर संसद पहुंच चुके ऐसे युवा सांसदों में से कोई संसद भवन में अभी तक उपस्‍िथत नहीं हुआ है, अब आप ही अनुमान लगा लीजिए ऐसे युवा संसद में जनता की आवाज को क्‍या उठाऐंगे।
मेरी समझ में हम यहां किसी एक का उदाहरण पेश करने करने की जरूरत नहीं है, क्‍योंकि हम यहां लतमरूआ पहलवानों की चर्चा नहीं कर रहें हैं।